Monday 26 May 2014

गाँव ये शहर

पिछले कुछ अरसे से , खासकर जबसे टेम्पेरे, फ़िनलैंड आई हूँ , वो गाँव बहुत याद आता आता है। … जहाँ पता नहीं कितनी ही मीठी यादें बसी हैं।   उसकी शांति और हवाओं में पेड़ पौधों और मिटटी  की खुशबू  … बहुत याद आती है।  गर्मी की कितनी ही छुट्टियाँ और उससे जुड़े खेल , माँ के हांथों का विशुद्ध देसी खाना , बुआ दादी के हाथों की चटनी, फरे , दही बड़े और आचार। … दादाजी का प्यार और गाँव में पापा के चेहरे की वो रौनक। .... सब याद आ रहा है।  कितनी अजीब सी बात है न , अपने गाँव से मैं विदेश के शहर को सामीप्य पा रही हूँ  . मगर ये सच है हमने हिंदुस्तान में गाँव सी शांति या गाँव सी हरियाली कबसे स्वाहा कर दी है। कहाँ हमें नदी या झील के साफ़ सुथरे किनारे नसीब होते हैं. 

इसी शनिवार की बात है।  पिनीकी बीच की पिकनिक गजब की थी।  बस यूँ लगता था जैसे समय यहीं थम जाए और शायद वो थोड़ा सा थमा भी था। ....पानी की सिर्फ आवाज़ भर में कितनी ताज़गी थी।  आखिर ज़िन्दगी में और क्या चाहिए ? जब आपके हथेली से कुछ खाने में पक्षी हिचकें नहीं तो सोच लीजिये आप उनके कितने नज़दीक हैं।  मुझे फक्र है मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में हर स्वाद लिया है।  गाँव , नगर , महानगर , विदेश। …हर जगह का ! पहली बार टैगोर का वैश्विक गाँव का सिद्धांत ज़हनी रूप में समझ आ रहा है।  अगर कहूँ की इस ज़िन्दगी से प्यार हो रहा है तो झूठ नहीं होगा।  

Monday 14 April 2014

पलाश

हर बरस जब वसंत कहीं फूटता है 
उस लाल पलाश के लिए दिल रोता है 
कितना समय बीत गया न 
उसे महसूस किये 
तुम अपने प्यारे से 
नन्हे हाथों से तोड़कर 
उपहार दिया करते थे 
पलाश का 
यहाँ भी 
वसंत आया है 
लेकिन न तुम हो 
और न है पलाश 

शालिनी 

Friday 21 March 2014

हर बार

हर बार कि तरह इस बार भी 
बेधड़क से तुम
मुँहफट से तुम
कितनी किरचने कचोटते तुम
कितनी ही बेखयाली में तुम
कुछ में बहुत कुछ कह गए
तुम
कई बार हैरान हो जाती हूँ
इतनी चोटें कैसे पी जाती हूँ
कितना घोल लेती हूँ 
खुद को मैं
जैसे पानी का बुलबुला हूँ
या सिर्फ साढ़े पांच फिट कि
अभूझ पहेली हूँ मैं
मगर
तुम
तुम कुछ भी कह लेते हो
उड़ेल देते हो कहीं भी मन को
और मैं
बस समेटती हूँ
खुद को और
तुम को भी
तुम आंधी कि तरह
उजाड़ते हो
कभी मुझे
तो कभी सपने को
और मैं
बस बहारती हूँ
कभी खुद को
कभी उस घर को
और तुम
कभी भी फिर से एक फूंक से
उड़ा देते हो
कभी इस घर को
कभी मुझे। …।

शालिनी

Tuesday 7 January 2014

आज भी तुम वहीं खड़ीं थीं

आज भी तुम वहीं खड़ीं थीं 


क्यों 
क्यों नहीं बता देती उसको 
तुम भी मरती हो 
रोज़ 
रोज़ उसके खौफ से 
उतरती सिर्फ नीचे 
उतरती हो 
आज भी वो आएगा 
मलहम लेकर 
शायद आज फिर रोंधेगा 
उस शरीर को 
जिसे झोंक कि तरह वक़्त ने 
पी लिया है 

क्यों 
क्यों नहीं कह देती 
बस अब नहीं 
अब नहीं मर पाउंगी 
रोज़ हज़ारों कीड़ों के सामान 
एक साथ 
उसके भद्दे हाथ 
नहीं सहला पाउंगी 
नहीं जी पाउंगी सिर्फ बेटे 
के लिए 

क्यों 
क्यों नहीं आवाज़ उठाती तुम 
बस घंटों मेरा सर खाती हो 
अपनी ग्लानि यहाँ उड़ेलती हो 
बस इसीमे हलकी हो जाती हो 
एक कदम उठाती नहीं 
और बरसों और दर्द 
चुकाना चाहती हो 

- शालिनी 

Wednesday 11 December 2013

It's Christmas Time...

I have a ( good) habit of collecting ornaments and never using them ... In time and now these have became pleasure to see and be gifted to someone...i do buy but not use them..but love to give them to girls around .  Christmas celebrations are just round the corner and this time I have a wonderful daughter to gift her some precious moments.. Though hardly she understands the festive moods but here comes a much smarter 5 year old Arnava ...my elder son...got a huge list for Santa ...Hey! Santa ! It's hard...isn't it...but mood is on...

Those all beautiful ornaments will some day be gifted to my beautiful daughter...but yes baby for this year...Santa will make your day special by showering love on you...this Christmas is also very special as it's gonna be White Christmas...I still remember my childhood days when Papa encouraged me to celebrate the festival...my first Christmas tree and the First Christmas Party...now that is what I call sowing seeds of secularism and broader perspective towards religion...this is my turn to do the same with my kids...so if it is celebration...it's for everyone...

नौ महीनों कि ऊहापोह

पहली किलकारी कितनी मासूम कितनी खूबसूरत होती है . ऐसा लगता है जैसे इतना दर्द सहने के बाद ईश्वर ने एक प्यारा सा तोहफा दाल दिए हो आपकी झोली में . अर्णव जब पैदा हुआ उसके पहले के दिन शायद मेरे लिए भयानक सपने से थे . वो पांच दिन जिसमे रह रह कर दिन में तारे से दिखाने वाला दर्द आज भी नहीं भूल पाती हूँ . उन दिनों में कई बार ज्ञान को भी मेरा साथ झूटता सा दिखा था . कई बार उन्हें रोते बिलखते और आंसुओं को छुपाते देखा था .  वो निर्णायक 1 8  घंटे कितने कम्पानेवाले रहे . और ये सब अपने देश से दूर और अपने लोगो से दूर . कहते हैं अगर माँ नज़दीक हो तो बच्चे बहुत कुछ सहते चले जाते हैं . लेकिन मुझे वो नसीब नहीं हुआ . जब नब्ज़ ऊपर नीचे होने लगी तब डॉक्टर ने ओटी का रास्ता दिखाया . 

अर्णव जब 9 महीने माँ के अंदर आराम फार्म रहे थे तब तक सब ठीक रहा . ब्रिटेन के छोटे से शहर हेमल में बिताये वो बेफिक्री भरे 9 महीने बड़े मज़ेदार रहे . मैं किसी प्रिंसेस से कम नहीं थी . मिडवाइफ से हर मुलाकात में ख़ुशी और उत्साह होता था .शायद ही किसी appointment ने मुझे गहरी सोच या डर में डाला हो .इन 9 महीनो को अगर मैं अवीरा के दौरान बिताये खौफनाक दिनों और लगभग रोज़ एक बुरी खबर के साथ ... बहुत सी परेशानियों से लैस डॉक्टर से मिलकर लौटती रही .इस बार मैं नॉएडा (इंडिया ) में थी .यहाँ मैं अपने देश के डॉक्टर कि कमियां नहीं निकाल रही . मगर ये सभी मेरे अनुभव हैं . जब मैं मीडिया का हिस्सा थी तब लगभग रोज़ मैं डॉक्टर से मिलती थी कई बहुत बेहतरीन इंसानों से मिली जो आज भी मेरे दोस्त हैं . बहरहाल उन दिनों मैं लगभग रोज़ ही रोती थी . ज्ञान को कभी इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था . मुझे लगता था जैसे इन भयानक सी बातों को मैं अकेली ही सह रही हूँ . किसी तरह सरक सरक के दिन निकल रहे थे . हर मुलाकात पर डॉक्टर नए और बेहद महंगे टेस्ट करवा रही थीं . मैं खुद रिपोर्टर होते हुए भी अपनी लड़ाई नहीं लड़ पा रही थी . टेस्ट फलां फलां सेंटर से ही करवाने का मतलब भी जानती थी . कभी 20 हज़ार का टेस्ट 
बताया जाता तो कभी बच्चे कि ग्रोथ पर सवाल उठाया जाता . हालाँकि इन हर ऐसे टेस्ट के बाद मैं अपनी डॉ दोस्त जो इंदौर में थी बताती ... वो हर बार इससे गैरजरूरी बताती . हम बुरी तरह से पस्त हो चुके थे और हमने फैसला किया कि इंदौर जाना बेहतर रहेगा . इंदौर मेरा होमटाउन है इसलिए यहाँ कहाँ जाना है और किसे चुनना है मुझे पता था . यहाँ मैंने आगे का भार डॉ . शीला त्यागी पर डाला . मुझे हमेशा कि तरह इस बार भी  मेरे शहर ने निराश नहीं किया . यहाँ वो सभी बातें जो लगातार नॉएडा के डॉक्टर कह रहे थे कि बच्चा बचने के लगभग 50  % कि चांस हैं गलत साबित हुए और अवीरा नॉर्मल डिलीवरी से हुई . यहाँ मिली देखभाल के सामने लंदन भी फ़ैल हो गया . भारत के दो शहरों में कितना बड़ा अंतर था .

कितनी अजीब सी बात है न ....अपने ही देश में अलग अलग जगह अलग अलग लोग… उनके ईमानदारी के अलग मापदंड ...जैसे मरीज़ इंसान ही नहीं ...काश नॉएडा कि उस डॉक्टर ने एक बार सोचा होता कि हर हफ्ते ऐसी ख़बरों के बोझ तले मैं कैसे जीती होंगी ... ऐसे मेरे ही नहीं बहुत सी माओं के साथ घटा होगा ... अगर मैंने इंदौर जाने का फैसला न किया होता तो ऑपरेशन पक्का था . मुझे आज भी याद है जब मैंने डॉक्टर को बताया कि मैं अपनी माँ  के घर जाना चाहती हूँ तब उन्हें कितना बड़ा झटका लगा था . बात सिर्फ चंद रुपयों कि कतई नहीं है .. वो तो खैर कंपनी दे देती है… बात उस स्ट्रेस कि है जो इस समय कोसो दूर होना चाहिए .. जिन दिनों को उत्सव कि तरह मनाना चाहिए उसे मैंने बेहद तनाव में गुज़ारे ... 





Wednesday 4 December 2013

एक महीन सा रिश्ता

अर्णव के स्कूल का रास्ता एक शांत ग्रेवयार्ड से होकर जाता है। बड़ी अजीब सी बात है मगर यहाँ इतनी खूबसूरती फैली हुई है कि कभी भी जेहन में आता ही नहीं कि मैं कहाँ से गुज़र रही हूँ। अक्सर लोग यहाँ सुस्ताने बैठते हैं कुछ किताबें पढ़तें हैं तो कुछ अपने कुत्ते को टहलाते हैं।  तो कुल मिलाकर  यह एक ऐसी जगह है जहाँ ऐसा महसूस ही नहीं होता कि यहाँ किसी को दफनाया गया होगा।  हालाँकि यहाँ लगे बड़े बड़े क्रॉस इसकी गवाही देते हैं। पहले पहल जब मैं ताम्पेरे , फ़िनलैंड आई तब पास कि लम्बी सड़क से होकर जाती।  कई बार मन किया कि छोटा रास्ता पकडूं मगर हिम्मत ही नहीं हुई।  सोचिये ज़रा भारत में हम ऐसी जगहों पर जाने से बचते हैं।  लेकिन इसकी खूबसूरती ने अब इतना बांध लिया है कि जब तक मेरे  पाँव यहाँ नहीं पड़ते तबतक कुछ छूटा सा लगता है। उन बहुत सी कब्रों पर लिखे नामों को रोज़ गौर से देखती हूँ।  अधितकर कब्रें 1800  के आसपास कि हैं। … सोचती हूँ कि उस समय का फ़िनलैंड कैसा रहा होगा।  स्वीडन कि बादशाहत में कैसे दिन रहे होंगे। … बहुत अजीब सा रिश्ता बना लिया है मैंने इनसभी अनजान लोगों से।